प्रश्नोपनिषद की कथा
बहुत समय पहले, भारत के एक पवित्र आश्रम में महर्षि पिप्पलाद और उनके शिष्य निवास करते थे। महर्षि पिप्पलाद अपनी गहन तपस्या और ज्ञान के लिए प्रसिद्ध थे। उनके पास छह विद्वान शिष्य आए, जो आत्मज्ञान की खोज में थे। ये छह शिष्य थे: कबन्धि कात्यायन, भारद्वाज, कौशल्य अश्वलायन, सौर्यायणी गर्ग्य, सत्यकाम जाबालि, और सुकेश भारद्वाज। ये सभी शिष्य महर्षि पिप्पलाद के पास अपने-अपने प्रश्नों के उत्तर खोजने आए थे।
पहला प्रश्न: कबन्धि कात्यायन का प्रश्न
कबन्धि कात्यायन ने महर्षि से पूछा, “भगवन, सृष्टि का उत्पत्ति कैसे होती है?”
महर्षि ने उत्तर दिया, “प्रजापति ने इच्छा की कि वे सृष्टि की उत्पत्ति करें। उन्होंने पहले प्राण का निर्माण किया और फिर उनसे मन, सत्य, ऋतु, दिशाएं, जल, पृथ्वी, आकाश और अग्नि का सृजन किया। इन सभी तत्वों के माध्यम से प्रजापति ने सृष्टि की उत्पत्ति की।”
महर्षि ने शिष्य को बताया कि प्राण ही सृष्टि का मूल है और उसके माध्यम से ही सभी वस्तुओं की उत्पत्ति होती है।
दूसरा प्रश्न: भारद्वाज का प्रश्न
भारद्वाज ने पूछा, “हे महर्षि, प्राण का स्वरूप क्या है और कैसे यह शरीर में निवास करता है?”
महर्षि पिप्पलाद ने उत्तर दिया, “प्राण पंचवायु के रूप में शरीर में निवास करता है। ये पाँच वायुएँ हैं: प्राण, अपान, व्यान, उदान और समान। प्राण का स्थान हृदय में है, अपान का नीचे के अंगों में, व्यान पूरे शरीर में, उदान गले में और समान नाभि में। ये सभी वायुएँ शरीर के विभिन्न क्रियाओं को संचालित करती हैं।”
तीसरा प्रश्न: कौशल्य अश्वलायन का प्रश्न
कौशल्य ने पूछा, “हे गुरु, निद्रा और जागृति की स्थिति में कौन जागृत रहता है?”
महर्षि ने उत्तर दिया, “मन और आत्मा जागृत रहते हैं। जब व्यक्ति निद्रा में होता है, तब भी प्राण और आत्मा सक्रिय रहते हैं। प्राण शरीर को जीवित रखता है और आत्मा अनुभव करती रहती है। इसलिए, निद्रा और जागृति दोनों स्थितियों में आत्मा का अनुभव होता है।”
चौथा प्रश्न: सौर्यायणी गर्ग्य का प्रश्न
सौर्यायणी ने पूछा, “हे महर्षि, प्राण का महत्व क्या है और यह कैसे जीवों में निवास करता है?”
महर्षि ने उत्तर दिया, “प्राण ही जीवन का आधार है। इसके बिना कोई जीवित नहीं रह सकता। प्राण का निवास शरीर के प्रत्येक कोशिका में होता है और यह जीवन शक्ति को बनाए रखता है। जब तक प्राण शरीर में होता है, तब तक जीवित रहता है। प्राण का महत्व इतना है कि यह जीवन और मृत्यु का निर्धारण करता है।”
पाँचवाँ प्रश्न: सत्यकाम जाबालि का प्रश्न
सत्यकाम ने पूछा, “हे गुरु, ध्यान और तपस्या के माध्यम से आत्मा का ज्ञान कैसे प्राप्त होता है?”
महर्षि पिप्पलाद ने उत्तर दिया, “ध्यान और तपस्या के माध्यम से मन को शुद्ध करना होता है। जब मन शांत और शुद्ध होता है, तब आत्मा का साक्षात्कार होता है। ध्यान और तपस्या के माध्यम से व्यक्ति अपने अंदर की दिव्यता को पहचानता है और ब्रह्म से एकाकार होता है।”
छठा प्रश्न: सुकेश भारद्वाज का प्रश्न
सुकेश ने पूछा, “हे महर्षि, आत्मा और ब्रह्म के संबंध में क्या सत्य है?”
महर्षि ने उत्तर दिया, “आत्मा और ब्रह्म एक ही हैं। आत्मा ब्रह्म का अंश है और ब्रह्म आत्मा का स्वरूप है। इस सत्य को जानने के लिए व्यक्ति को अपने अंदर की दिव्यता को पहचानना होता है। जब आत्मा और ब्रह्म का साक्षात्कार होता है, तब व्यक्ति अद्वैत सत्य को समझता है।”
इस प्रकार, महर्षि पिप्पलाद ने अपने शिष्यों को उनके प्रश्नों के उत्तर दिए और आत्मज्ञान की दिशा में मार्गदर्शन किया। प्रश्नोपनिषद का यह ज्ञान आज भी हमें आत्म-साक्षात्कार और शांति की ओर प्रेरित करता है। महर्षि पिप्पलाद की शिक्षाएँ हमें यह सिखाती हैं कि जीवन का वास्तविक उद्देश्य आत्मा और ब्रह्म के अद्वैत स्वरूप को समझना और उसे अपने जीवन में अपनाना है।
महर्षि पिप्पलाद का जीवन परिचय।
महर्षि पिप्पलाद, भारतीय वेदांत और उपनिषद के महान ऋषि थे। वे यजुर्वेद की शाखा के प्राचीन ऋषियों में से एक थे और उनका नाम प्राचीन भारतीय साहित्य में विद्यमान है। पिप्पलाद का नाम “पिप्पल” वृक्ष से जुड़ा हुआ है, जिसके नीचे उन्होंने गहन तपस्या और साधना की थी। उनके जन्म और प्रारंभिक जीवन के बारे में विस्तृत जानकारी उपलब्ध नहीं है, लेकिन वे अपने ज्ञान और तपस्या के कारण अत्यंत सम्मानित और पूजनीय माने जाते हैं।
महर्षि पिप्पलाद ने अपने जीवन को वेदों और उपनिषदों के अध्ययन और उनके प्रसार के लिए समर्पित किया। वे अद्वैत वेदांत के प्रमुख आचार्यों में से एक थे और उनकी शिक्षाएँ “प्रश्नोपनिषद” के माध्यम से प्रसिद्ध हैं। पिप्पलाद ने अपने शिष्यों को ब्रह्मज्ञान और आत्मा के अद्वैत स्वरूप के बारे में गहन ज्ञान दिया।