॥ ईशोपनिषद की कथा ॥
ईशोपनिषद, जिसे “ईशावास्य उपनिषद” के नाम से भी जाना जाता है, एक महत्वपूर्ण वेदांत ग्रंथ है। यह उपनिषद यजुर्वेद के शुक्ल शाखा का हिस्सा है और इसमें 18 मंत्र हैं जो संपूर्ण ब्रह्मांड में परमात्मा की व्यापकता का वर्णन करते हैं। इस उपनिषद में मुख्य रूप से आत्मा और परमात्मा के अद्वैत (अविभाज्यता) का प्रतिपादन किया गया है। यह उपनिषद हमें सिखाता है कि सभी जीवों और वस्तुओं में ईश्वर का वास है और हमें त्यागपूर्वक जीवन जीना चाहिए।
प्राचीन काल में, भारत के एक समृद्ध और धर्मनिष्ठ राज्य में एक राजा था, जिसका नाम था राजकुमार सत्यव्रत। सत्यव्रत धर्म और न्याय के प्रति अत्यंत समर्पित थे, लेकिन उनके मन में आत्मा और परमात्मा के संबंध में बहुत जिज्ञासा थी। वे जानना चाहते थे कि इस विश्व का स्रष्टा कौन है और आत्मा और परमात्मा में क्या संबंध है।
सत्यव्रत ने अपने राज्य के सभी विद्वानों से इस प्रश्न का उत्तर जानने का प्रयास किया, लेकिन संतुष्टि नहीं मिली। अंततः, उन्होंने राज्य छोड़कर एक महान तपस्वी गुरु की खोज में वन की ओर प्रस्थान किया। कई दिनों की यात्रा के बाद, वे एक प्राचीन और ज्ञानी ऋषि के आश्रम पहुंचे, जो हिमालय की तलहटी में स्थित था।
राजकुमार सत्यव्रत ने ऋषि को प्रणाम किया और अपने प्रश्न उनके समक्ष रखे। ऋषि ने सत्यव्रत की जिज्ञासा देखकर उन्हें ईशोपनिषद का उपदेश दिया। उन्होंने कहा, “वत्स, इस उपनिषद में संपूर्ण ब्रह्मांड में परमात्मा की व्यापकता और आत्मा की प्रकृति का वर्णन है। इसे सुनो और मनन करो।”
ऋषि ने ईशोपनिषद के प्रथम मंत्र से आरंभ किया:
“ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत्। तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृधः कस्यस्विद्धनम्।”
इसका अर्थ है, “इस समस्त जगत में जो कुछ भी है, वह ईश्वर से आच्छादित है। इसलिए, त्यागपूर्वक उसका भोग करो और किसी अन्य की संपत्ति की इच्छा मत करो।”
ऋषि ने आगे बताया कि ईशोपनिषद के अनुसार, आत्मा और परमात्मा में कोई भेद नहीं है। यह उपनिषद अद्वैत (अविभाज्यता) के सिद्धांत को प्रतिपादित करता है। परमात्मा समस्त जगत में व्यापक है और प्रत्येक जीवात्मा में विद्यमान है।
“स पर्यगाच्छुक्रमकायमव्रणमस्नाविरं शुद्धमपापविद्धम्। कविर्मनीषी परिभूः स्वयम्भूर्याथातथ्यतोऽर्थान्व्यदधाच्छाश्वतीभ्यः समाभ्यः।”
इसका अर्थ है, “वह (परमात्मा) सर्वव्यापक, पवित्र, निराकार, निरव्रण, स्नायु रहित, शुद्ध और पाप रहित है। वह सर्वज्ञ, महान बुद्धिमान, सबको नियंत्रित करने वाला और स्वयंभू है। उसने सृष्टि को सत्य के अनुसार रचा है और यह सृष्टि अनादि काल से चली आ रही है।”
ऋषि ने सत्यव्रत को बताया कि ईशोपनिषद का मुख्य संदेश यह है कि हमें जीवन को त्याग और संतोष के साथ जीना चाहिए। हमें यह समझना चाहिए कि सभी चीजों में ईश्वर का वास है और हमें किसी भी वस्तु का मोह नहीं करना चाहिए। यह ज्ञान हमें सच्ची शांति और मुक्ति की ओर ले जाता है।
सत्यव्रत की आत्मा का ज्ञान
ऋषि के उपदेशों को सुनकर सत्यव्रत की जिज्ञासा शांत हो गई और उन्हें आत्मा और परमात्मा के अद्वैत का अनुभव हुआ। उन्होंने समझा कि परमात्मा हर जीव में विद्यमान है और इस ज्ञान ने उनके जीवन को नई दिशा दी। वे अपने राज्य लौटे और अपने प्रजा को भी इस महान सत्य का उपदेश दिया।
ईशोपनिषद की यह कथा हमें सिखाती है कि इस विश्व में सभी चीजों में ईश्वर का वास है। हमें त्याग और संतोष के साथ जीवन जीना चाहिए और आत्मा और परमात्मा के अद्वैत के सिद्धांत को समझकर आत्मज्ञान की प्राप्ति करनी चाहिए। इस ज्ञान के माध्यम से हम अपने जीवन को सत्य और धर्म के मार्ग पर अग्रसर कर सकते हैं।
ईशोपनिषद की यह कथा एक अद्वितीय और गहन शिक्षा प्रदान करती है, जो हमारे जीवन को सकारात्मक दिशा में बदल सकती है। इस उपनिषद का संदेश आज भी उतना ही प्रासंगिक है जितना कि प्राचीन काल में था। इसके माध्यम से हम आत्मा और परमात्मा के अद्वैत को समझ सकते हैं और सच्चे सुख और शांति की प्राप्ति कर सकते हैं।