कक्षीवान एवं प्रियमेघ की कथा ।
एक प्रश्न जिसका उत्तर देने में 8 पीढ़ियाँ असफल रही ।
पौराणिक काल में एक विद्वान ऋषि कक्षीवान हुए जो हर प्रकार के शास्त्र और वेद में निपुर्ण थे। एक बार वे ऋषि प्रियमेध से मिलने गए जो उनके सामान ही विद्वान और सभी शास्त्रों के ज्ञाता थे। दोनों सहपाठी भी थे और जब भी वे दोनों मिलते तो दोनों के बीच एक लम्बा शास्त्रार्थ होता था जिसमे कभी कक्षीवान तो कभी प्रियमेघ विजय होते थे।
उस दिन भी ऋषि कक्षीवान ने प्रियमेध से शास्त्रार्थ में एक प्रश्न पूछा कि ऐसी कौन सी चीज है जिसे यदि जलाये तो उस से ताप तो उत्पन्न हो किन्तु तनिक भी प्रकाश ना फैले?
प्रियमेध ने बहुत सोच-विचार किया परन्तु वे इस पहेली के उत्तर दे पाने असमर्थ रहे। उन्होंने उसका उत्तर बाद में देने की बात कही पर उत्तर ढूढ़ने के उधेड़बुन में उनकी जिंदगी बीत गयी। चाहे कैसा भी पदार्थ हो पर जलाने पर वो थोड़ा प्रकाश तो करता ही है।
जब प्रियमेध ऋषि का अंत समय नजदीक आया तो उन्होंने कक्षीवान ऋषि को संदेश भेजा की मैं आपकी पहेली का उत्तर ढूंढ पाने में असमर्थ रहा किन्तु मुझे पूरा विश्वास है कि मेरे वंश में ऐसा विद्वान जरूर जन्म लेगा जो आपके इस प्रश्न का उत्तर दे पायेगा। किन्तु तुम मुझे वचन दो कि जब तक कोई मेरे कुल का विद्वान तुम्हारे प्रश्न का उत्तर ना दे दे, तुम इस पृथ्वी को छोड़ कर नहीं जाओगे।
ऐसा कहकर उन्होंने अपने प्राण त्याग दिए। कक्षीवान को उनकी मृत्यु का बड़ा दुःख हुआ किन्तु उससे भी अधिक दुःख उन्हें इस बात का हुआ कि उनके प्रश्न के कारण प्रियमेघ ने असंतोष में प्राण त्यागे।
प्रियमेघ की मृत्यु के पश्चात उनके पुत्र ने इस प्रश्न के उत्तर का दायित्व लिया किन्तु वो भी वह इस प्रश्न का उत्तर ढूढ़ पाने में असमर्थ रहा और एक दिन उसकी भी मृत्यु हो गयी। इसी प्रकार एक के बाद एक प्रियमेघ की आठ पीढ़ियाँ कक्षीवान के उस प्रश्न के उत्तर को ढूढ़ने के प्रयास में काल के गाल में समा गयीं।
कक्षीवान अपने पहेली का हल पाने के लिए जिन्दा रहे। कक्षीवान को वरदान स्वरुप देवराज इंद्र से एक थैली मिली थी जो नेवले के चमड़े से बनी थी। उसमे चावल के दानें भरे थे और उन्हें वरदान था कि जब तक चावल के दानें समाप्त ना हो जाएँ, वे जीवित रहेंगे।
प्रत्येक वर्ष वे उसमे से एक दाना निकालकर फेक देते थे और अपने प्रश्न के उत्तर के लिए जिए जा रहे थे।
प्रियमेघ की नवीं पीढ़ी में साकमश्व नाम का बालक पैदा हुआ जो बचपन से ही बहुत विद्वान था। बालपन में ही उसने असंख्य शास्त्राथों में भाग लिया था और सदैव विजय रहा था। साकमश्व जब बड़ा हुआ तो उसे एक बात चुभने लगी की एक पहेली का उत्तर उसकी पूरी ८ पीढ़िया देने में असमर्थ रही हैं और ऋषि कक्षीवान अपने प्रश्न का उत्तर पाने के लिए ही जीवित हैं।
उसने निश्चय किया की वह इस प्रश्न का उत्तर ढूँढ कर अपने परिवार के कलंक को मिटाएगा और ऋषि कक्षीवान को इस जीवन चक्र से मुक्त करवाएगा। एक दिन वो इस प्रश्न के विषय में सोच रहा था कि उसे सामवेद का एक श्लोक याद आया और वो भाव-विभोर होकर उसे मधुर स्वर में गाने लगा। इसी के साथ ही उसे अपने प्रश्न का उत्तर भी मिल गया।
वह तुरंत कक्षीवान के आश्रम की ओर भागा और वहाँ पहुँच कर उन्हें प्रणाम किया। कक्षीवान उसे देखते ही जान गए की उन्हें आज उनके प्रश्न का उत्तर मिल जायेगा। साकमश्व ने कहा कि हे गुरुदेव, जो मनुष्य ऋग्वेद की ऋचा के बाद सामवेद का साम का भी गायन करता हो वो गायन उस अग्नि के सामान होता है जिससे ताप भी उत्पन्न होता है और प्रकाश भी।
किन्तु जो मनुष्य केवल ऋग्वेद की ऋचा गाता है, सामवेद का साम नही, वह गायन साक्षात अग्नि के समान ही है किन्तु ये वो अग्नि है जिससे ताप तो उत्पन्न होता है किन्तु प्रकाश नहीं।
साकमश्व का उत्तर सुनकर कक्षीवान की आँखों से आँसू बहने लगे। उन्होंने भरे स्वर में कहा कि “हे पुत्र! तुम धन्य हो। मेरे द्वारा अनजाने में पूछे गए एक प्रश्न ने मेरे प्रिय मित्र प्रियमेघ को मुझसे छीन लिया। ये नहीं, उसकी अनेक पीढ़ियों को भी मैं अपने सामने काल के गाल में समाते देखता रहा।
किन्तु आज तुमने इस प्रश्न का उत्तर देकर ना केवल अपने पूर्वजों का कल्याण किया बल्कि मुझे भी इस जीवन रूपी चक्र से मुक्त कर दिया।” ऐसा कह कर उन्होंने साकमश्व को अपनी थैली दी और कहा कि वो बचे हुए चावल के दाने बिखरा दे ताकि वे परलोक गमन कर सकें।
उनकी आज्ञा पाकर साकमश्व ने सारे चावल के दानों को पृथ्वी पर फेंक दिया और फिर कक्षीवान ने अपने शरीर का त्याग कर दिया॥
यही प्राबोध है, यही सुमरती है जिसके लिये यह मानव देह प्राप्त हुई है।
भज मन
ओ३म् शान्तिश् शान्तिश् शान्तिः