रत्नाकर डाकू में से बने महर्षि वाल्मीकि जी
रत्नाकर डाकू में से बने महर्षि वाल्मीकि जी ने कैसे लिख दी रामायण ? जानिए
भारतीय संस्कृति के साधु-संतों और भगवान के नाम की आध्यात्मिक शक्ति उनकी ताकत , दुनिया के किसी भी पलड़े से तोली नहीं जा सकती है। हम लोग जो आज घरों में वाल्मीकि कृत रामायण देख रहे हैं और उसका सेवन,अध्ययन, मनन,चिंतन करके जो हमारा जीवन उन्नत हो रहा है, क्या आपको पता है , कि ये रामायण कैसे लिखी गई है और इसके रचयिता एक ख़ूखार डाकू में से महान ऋषि कैसे बन गए ।
इसका इतिहास जानकर भी सनातन हिन्दू संस्कृति पर आपको गर्व होने लगेगा, हृदय अहोभाव से भर जाएगा और आप नतमस्तक हुए बिना नहीं रहेंगे।
सच तो यही है कि दुनिया में सनातनधर्म के जैसे कोई श्रेष्ठ धर्म है नहीं, हो सकता भी नहीं… क्यों कि यह तो सनातन है।
महर्षि वाल्मीकि जी का परिचय:
महर्षि वाल्मीकि की कहानी बड़ी अर्थपूर्ण है । सत्पुरुषों की संगति में आकर लोगों की उन्नति कैसे होती है, महर्षि वाल्मीकि इसका एक महान उदाहरण हैं । नारदमुनि के संपर्क में आकर वे एक महान ऋषि, ब्रम्हर्षि बने, तथा उन्होंने ‘रामायण’ की रचना की, जिसे विश्व कभी भूल नहीं सकता ,जो एक महाकाव्य भी है और धर्मग्रंथ भी । दूसरे देशों के लोग इस ग्रंथ का अपनी-अपनी भाषाओं में अनुवादित रूप मे पठन करते हैं । रामायण के चिंतन से हमारा जीवन सुधरता है ।
मानवता को यह महाकाव्य रूपी परम् मंगलकारी उपहार देनेवाले महर्षि वाल्मीकि को हम कभी भूल नहीं सकते । उन को हमारा कोटि-कोटि प्रणाम ।
महर्षि वाल्मीकि की रामायण संस्कृत भाषा का पहला अद्भुत काव्य है, अत: उसे ‘आदि-काव्य’ अथवा ‘पहला काव्य’ कहा जाता है तथा महर्षि वाल्मीकि को आदिकवि’ अथवा ‘पहला-कवि’ कहा जाता है ।
जिन्होंने श्रीराम के सुपुत्रों लव एवं कुश को इसका गायन तथा कहानी सिखाई, वे महर्षि वाल्मीकि ही थे । उनके पूर्व जीवन की बड़ी ही बोधप्रद कहानी है । महर्षि वाल्मीकि की रामायण संस्कृत भाषा में है तथा बहुत सुंदर काव्य है ।
महर्षि वाल्मीकि की रामायण गायी जा सकती है । कोयल की आवाज की तरह वह कानों को भी बडी मीठी (कर्णप्रिय) लगने वाली है । महर्षि वाल्मीकि को काव्य के पेड पर बैठी तथा मीठा गानेवाली कोयल कहा गया है । जो भी रामायण पढते हैं, प्रथम महर्षि वाल्मीकि को प्रणाम कर तदुपरांत महाकाव्य की ओर बढते हैं ।
महर्षि वाल्मीकि और उनके सद्गुरु नारदजी की कथाः
महर्षि वाल्मीकि और देवर्षि नारद जी को लेकर एक पौराणिक कथा है। वाल्मीकि बनने से पूर्व महर्षि का नाम रत्नाकर था और वो अपने परिवार के भरण-पोषण के लिए लोगों को लूटा करते थे। एक बार उनकी मुलाकात नारद जी से हो गई। जब वो उन्हें लूटने लगे तो नारदजी ने प्रश्न किया कि, जिस परिवार के लिए वो ये काम कर रहे हैं, क्या उनके वह परिजन उनके पापा में भागीदार बनेगे ?
जब रत्नाकर ने यह सुना तो वह अचरज में पड़ गए और तुरंत अपने परिजनों से जाकर ये प्रश्न किया। उनको यह जानकर झटका लगा कि उनका कोई भी अपना कहलाने वाला परिजन उनके पाप में हिस्सेदार बनने को तैयार नहीं है। इसके बाद उन्होंने नारद जी से क्षमा मांगी और अपने उद्धार के लिए प्रार्थना की ।
तब करुणा वश होकर संत हृदय देवर्षि नारद जी ने उन्हें सत्संग और राम-नाम के जप का उपदेश भी दिया। किंतु रत्नाकर उस वक्त अत्यंत पाप के बोझ के कारण राम नाम नहीं बोल पा रहे थे । तब नारदजी ने उन्हें ‘मरा मरा’ जपने की सीख दी।
और रत्नाकर ने यह उल्टा मंत्र पूर्ण श्रद्धाभाव से जपना शुरू किया । तब यही जप उनका ‘ राम नाम ‘ हो गया और वे एक लुटेरे में से महान महर्षि वाल्मीकि हो गए।
कालांतर में जब श्रीराम ने राजधर्म के पालन हेतु माता सीता जो उस वक्त गर्भवती थीं , उनको वन भेज दिया था, तब महर्षि वाल्मीकि ने ही उनका अपनी पुत्री को समान पालन व संरक्षण किया था।
माता सीता कई वर्षों तक महर्षि वाल्मीकि के आश्रम में रही थीं और वहीं अपने पुत्रों को जन्म दिया । उनके पुत्रों लव-कुश के गुरु महर्षि वाल्मीकि ही थे।
महाकाव्य रामायणकी रचनाः
एक बार महर्षि वाल्मीकि गंगा नदी पर स्नान करने गए । भारद्वाज नामक शिष्य उनके वस्त्र संभाल रहा था । चलते-चलते वे एक निर्झर के पास आए । निर्झर का पानी बिल्कुल स्वच्छ था । वाल्मीकि ने अपने शिष्य से कहा, देखो, कितना स्वच्छ पानी है, जैसे किसी अच्छे मानव का स्वच्छ मन! आज मैं यहीं स्नान करूंगा।’
महर्षि वाल्मीकि पानी में पांव रखने हेतु उचित स्थान देख रहे थे, तभी उन्हें पंछियों की मीठी आवाज सुनाई दी । ऊपर देखने पर उन्हें दो पंछी एक साथ उडते हुए दिखे । उन पंछियों की प्रसन्नता देख कर महर्षि वाल्मीकि अति प्रसन्न हुए । तभी तीर लगने से एक पंछी नीचे गिर गया । वह एक नर पक्षी था । उसको घायल देखकर उसकी साथी दुख से चिल्लाने लगी । यह हृदयविदारक दृश्य देखकर महर्षि वाल्मीकि का हृदय पिघल गया । पंछी पर किसने तीर चलाया यह देखने हेतु उन्होंने इधर-उधर देखा । तीर-कमान के साथ एक आखेटक निकट ही दिखाई दिया । आखेटक ने (शिकारी ने) उसका मांस खाने हेतु पंछी पर तीर चलाया था । महर्षि वाल्मीकि बड़े क्रोधित हुए । उनका मुंह खुला और ये शब्द निकल गए : तुमने एक प्रेमी जोड़े में से एक की हत्या की है, तुम खुद अधिक दिनों तक जीवित नहीं रहोगे !’
दुख में उनके मुंह से एक श्लोक निकल गया । जिसका अर्थ था, तुम अनंत काल के लंबे साल तक शांति से न रह सकोगे । तुमने एक प्रणयरत पंछी की हत्या की है ।
पंछी का दुख देखकर महर्षि वाल्मीकि ने बड़े दुखी होकर आखेटक को (शिकारी को) शाप दिया; किंतु किसी को शाप देने से वे भी दुखी हो गए । उनके साथ चलने वाले भारद्वाज मुनि के समक्ष उन्होंने अपना दुख प्रकट किया । महर्षि वाल्मीकि के मुंह से श्लोक निकल जाने के कारण उन्हें भी आश्चर्य हुआ था । उनके आश्रम वापिस आने पर तथा उसके पश्चात भी वे श्लोक के विषय में ही सोचते रहे ।
🚩महर्षि वाल्मीकि का मन अभी भी उनके मुंह से निकले श्लोक का ही विचार कर रहा था, कि सृष्टि के देवता भगवान ब्रह्मा स्वयं उनके सामने प्रकट हुए । उन्होंने महर्षि वाल्मीकि से कहा, हे महान ऋषि, आपके मुंह से जो श्लोक निकला, उसे मैंने ही प्रेरित किया था । अब आप श्लोकों के रूप में ‘रामायण’ लिखेंगे । नारद मुनि ने जो तुम्हें रामायण की कथा सुनाई है , वह सब अब तुम अपनी आंखों से ध्यानावस्थित होकर देखोगे । तुम जो भी कहोगे, सच होगा । तुम्हारे शब्द सत्य होंगे । जब तक इस दुनिया में नदियां तथा पर्वत हैं, लोग ‘रामायण’ पढेंगे । ’ भगवान ब्रह्मा ने उन्हें ऐसा आशीर्वाद दिया और वे अदृश्य हो गए ।
तदुपरांत महर्षि वाल्मीकि ने ‘रामायण’ लिखी और… सर्वप्रथम उन्होंने श्रीराम के सुपुत्रों लव एवं कुश जिनका जन्म महर्षि वाल्मीकि के आश्रम में हुआ तथा वहीं उनकी छाया में बड़े हुए थे , उनको वे श्लोक सिखाए ।
तो देखा आपने कितनी अद्भुत है हमारी सनातन संस्कृति जिसमें एक व्यक्ति जो अपनी आजीविका चलाने के लोए लुटमार करता था और एक साधु देवर्षि नारद जी क्या मिलते हैं और भगवान के नाम की दीक्षा क्या दे देते हैं कि बस उस मार्गदर्शन के अनुसार चलकर ही रत्नाकर जैसा ख़ूखार डाकू अपना जीवन बना देता है और महान हो जाता है । आज भी महर्षि वाल्मीकि पूरी दुनिया को मार्गदर्शन दे रहे हैं।
धन्य-धन्य हे भारत भूमि !
धन्य-धन्य भारतीय सनातन संस्कृति !!
और धन्य-धन्य हैं हमारे साधु संत !!!
अधिभूतं क्षरो भावः पुरुषश्चाधिदैवतम् ।
अधियज्ञोऽहमेवात्र देहे देहभृतां वर ॥
भज मन
ओ३म् शान्तिश् शान्तिश् शान्तिः