Home Blog Adhyatam(अध्यात्म ) ॥अध्यात्मोपनिषद् की कथा॥

॥अध्यात्मोपनिषद् की कथा॥

अध्यात्मोपनिषद् एक महत्वपूर्ण वेदांत ग्रंथ है जो आत्मा, परमात्मा और उनके अद्वैत (अविभाज्यता) के सिद्धांतों पर विस्तृत चर्चा करता है। इस ग्रंथ की एक प्रेरणादायक कथा प्रस्तुत है, जो अध्यात्मिक ज्ञान की गहराई को समझाने में सहायक है।

प्रारंभ : बहुत समय पहले, भारत के एक शांत और पवित्र वन में एक ऋषि आश्रम था। इस आश्रम के गुरु, महर्षि वेदप्रकाश, अपने ज्ञान और विवेक के लिए विख्यात थे। उनके आश्रम में देश के कोने-कोने से शिष्य आते थे, जो आत्मज्ञान की खोज में थे।

शिष्य की जिज्ञासा : एक दिन, एक युवा शिष्य, नचिकेता, महर्षि के पास आया। नचिकेता ने अपने मन में अनेक प्रश्न उठा रखे थे, विशेषकर आत्मा और परमात्मा के संबंध में। उसने गुरुजी से पूछा, “गुरुदेव, आत्मा और परमात्मा क्या हैं? और उनके बीच का संबंध क्या है?”

महर्षि वेदप्रकाश मुस्कुराए और नचिकेता को एक पेड़ के नीचे बैठने का संकेत दिया। उन्होंने कहा, “वत्स, आत्मा और परमात्मा के विषय में जानने के लिए हमें ध्यान और साधना का मार्ग अपनाना होगा। मैं तुम्हें एक कथा सुनाता हूं, जो तुम्हारे प्रश्नों का उत्तर देगी।”

कथा की शुरुआत : महर्षि ने कथा आरंभ की: “एक बार एक राजा था, नाम था राजकुमार इन्द्रप्रस्थ। इन्द्रप्रस्थ बहुत ज्ञानी और धर्मात्मा राजा थे। उनके शासन में प्रजा सुखी और समृद्ध थी। लेकिन इन्द्रप्रस्थ के मन में हमेशा एक सवाल उठता था – ‘मैं कौन हूँ? यह आत्मा क्या है?’

इन्द्रप्रस्थ ने अपने राजमहल के सारे सुख-समृद्धि को छोड़कर वन का रुख किया। उन्होंने तपस्या और साधना आरंभ की और अनेक ऋषियों से मार्गदर्शन लिया, लेकिन उनके प्रश्न का समाधान नहीं हुआ।

आत्मज्ञान की प्राप्ति : एक दिन, इन्द्रप्रस्थ को एक गुफा में एक वृद्ध सन्यासी मिले। इन्द्रप्रस्थ ने सन्यासी को प्रणाम किया और अपना प्रश्न उनके समक्ष रखा। सन्यासी ने गहरी दृष्टि से इन्द्रप्रस्थ को देखा और कहा, ‘राजन, आत्मा की पहचान करने के लिए तुम्हें अपने मन और बुद्धि से परे जाना होगा। ध्यान और समाधि के द्वारा ही इसका ज्ञान हो सकता है।’

इन्द्रप्रस्थ ने वृद्ध सन्यासी की बात मानी और ध्यान में लीन हो गए। अनेक वर्षों की कठोर साधना के बाद, एक दिन इन्द्रप्रस्थ को आत्मा का अनुभव हुआ। उन्होंने अनुभव किया कि आत्मा और परमात्मा में कोई भेद नहीं है, वे एक ही हैं। यह अद्वैत का सिद्धांत है – ‘अहं ब्रह्मास्मि’। आत्मा ही ब्रह्म है और ब्रह्म ही आत्मा है।

कथा का उपसंहार : महर्षि वेदप्रकाश ने कथा समाप्त की और नचिकेता से कहा, ‘वत्स, आत्मा और परमात्मा का अनुभव केवल साधना और ध्यान के द्वारा ही किया जा सकता है। वे एक ही सत्य के दो रूप हैं। जब तक हम इस सत्य को अपने अनुभव में नहीं लाते, तब तक हमारे प्रश्नों का समाधान नहीं हो सकता।’

नचिकेता ने गुरु के चरणों में शीश नवाया और आत्मज्ञान की प्राप्ति के लिए साधना में लीन हो गया। उसने महर्षि की शिक्षा को जीवन में उतारकर आत्मा और परमात्मा के अद्वैत का अनुभव किया।

उपसंहार : अध्यात्मोपनिषद् की यह कथा हमें सिखाती है कि आत्मा और परमात्मा का ज्ञान केवल पुस्तकों और शास्त्रों से नहीं, बल्कि ध्यान और साधना से प्राप्त होता है। अद्वैत का सिद्धांत हमें यह समझने में मदद करता है कि हम सभी एक ही ब्रह्म के अंश हैं और हमारे भीतर वही दिव्यता विराजमान है।

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