सनातन सोलह संस्कार का महत्व :
हिन्दू धर्म में सोलह संस्कारों (षोडश संस्कार) का उल्लेख किया जाता है जो मानव को उसके गर्भाधान संस्कार से लेकर अन्त्येष्टि क्रिया तक किए जाते हैं। इनमें से विवाह, यज्ञोपवीत इत्यादि संस्कार बड़े धूमधाम से मनाये जाते हैं। वर्तमान समय में सनातन धर्म या हिन्दू धर्म के अनुयायी में गर्भाधन से मृत्यु तक १६ संस्कार होते हैं।
संस्कार का अभिप्राय उन धार्मिक कृत्यों हैं जो किसी व्यक्ति को अपने समुदाय का योग्य सदस्य बनाकर उसके शरीर, मन और मस्तिष्क को पवित्र करें। संस्कार ही मनुष्य को सभ्यता का हिस्सा बनाए रखते हैं। लेकिन वर्तमान में हिंदुजन उक्त सोलह संस्कार मनमाने तरीके से करके मत भिन्नता का परिचय देते हैं, जो कि वेद विरुद्ध है।
वेदों के अलावा गृहसूत्रों में संस्कारों का उल्लेख मिलता है। स्मृति और पुराणों में इसके बारे में विस्तृत जानकारी मिलती है। वेदज्ञों अनुसार गर्भस्थ शिशु से लेकर मृत्युपर्यंत जीव के मलों का शोधन, सफाई आदि कार्य को विशिष्ट विधि व मंत्रों से करने को संस्कार कहा जाता है। यह इसलिए आवश्यक है कि व्यक्ति जब शरीर त्याग करे तो सद्गति को प्राप्त हो।
कर्म के संस्कार- हिंदू दर्शन के अनुसार, मृत्यु के बाद मात्र यह भौतिक शरीर या देह ही नष्ट होती है, जबकि सूक्ष्म शरीर जन्म-जन्मांतरों तक आत्मा के साथ संयुक्त रहता है। यह सूक्ष्म शरीर ही जन्म-जन्मांतरों के शुभ-अशुभ संस्कारों का वाहक होता है। ये संस्कार मनुष्य के पूर्वजन्मों से ही नहीं आते, अपितु माता-पिता के संस्कार भी रज और वीर्य के माध्यम से उसमें (सूक्ष्म शरीर में) प्रविष्ट होते हैं, जिससे मनुष्य का व्यक्तित्व इन दोनों से ही प्रभावित होता है। बालक के गर्भधारण की परिस्थितियां भी इन पर प्रभाव डालती हैं।
ये संस्कार ही प्रत्येक जन्म में संगृहीत (एकत्र) होते चले जाते हैं, जिससे कर्मों (अच्छे-बुरे दोनों) का एक विशाल भंडार बनता जाता है।
इसे संचित कर्म कहते हैं। इन संचित कर्मों का कुछ भाग एक जीवन में भोगने के लिए उपस्थित रहता है और यही जीवन प्रेरणा का कार्य करता है। अच्छे-बुरे संस्कार होने के कारण मनुष्य अपने जीवन में प्रेरणा का कार्य करता है। अच्छे-बुरे संस्कार होने के कारण मनुष्य अपने जीवन में अच्छे-बुरे कर्म करता है। फिर इन कर्मों से अच्छे-बुरे नए संस्कार बनते रहते हैं तथा इन संस्कारों की एक अंतहीन श्रृंखला बनती चली जाती है, जिससे मनुष्य के व्यक्तित्व का निर्माण होता है।
उक्त संस्कारों के अलावा भी अनेकों संस्कार है जो हमारी दिनचर्या और जीवन के महत्वपूर्ण घटनाक्रमों से जुड़े हुए हैं, जिन्हें जानना प्रत्येक हिंदू का कर्तव्य माना गया है और जिससे जीवन के रोग और शोक मिट जाते हैं तथा शांति और समृद्धि का रास्ता खुलता है। यह संस्कार ऐसे हैं जिसको निभाने से हम परम्परागत व्यक्ति नहीं कहलाते बल्कि यह हमारे जीवन को सुंदर बनाते हैं।
सनातन धर्म एक शाश्वत और प्राचीन धर्म है। यह एक वैज्ञानिक और विज्ञान आधारित धर्म होने के कारण निरंतर विकास कर रहा है। माना जाता है कि इसकी स्थापना ऋषियों और मुनियों ने की है। इसका मूल पूर्णत: वैज्ञानिक होने के कारण सदियां बीत जाने के बाद भी इसका महत्व कम नहीं हुआ है।
प्रारम्भिक काल में हिन्दू समाज में गुरुकुल शिक्षा प्रणाली के अनुसार शिक्षा दी जाती थी, जो वैज्ञानिक होने के कारण विकासोन्मुख थी। सोलह संस्कारों को हिन्दू धर्म की जड़ कहें तो गलत नहीं होगा। इन्हीं सोलह संस्कारों में इस धर्म की संस्कृति और परम्पराएं निहित हैं जो निम्र हैं-
(1). गर्भाधान संस्कार,
(2). पुंसवन संस्कार.
(3). सीमन्तोन्नयन संस्कार,
(4). जातकर्म संस्कार,
(5). नामकरण संस्कार,
(6). निष्क्रमण संस्कार,
(7). अन्नप्राशन संस्कार,
(8). चूड़ाकर्म संस्कार,
(9). विद्यारम्भ संस्कार,
(10). कर्णवेध संस्कार,
(11). यज्ञोपवीत संस्कार,
(12). वेदारम्भ संस्कार,
(13). केशान्त संस्कार,
(14). समावर्तन संस्कार,
(15). विवाह संस्कार,
(16). अंत्येष्टि संस्कार।
१. गर्भाधान संस्कार : गर्भाधान संस्कार के माध्यम से हिन्दू धर्म सन्देश देता है कि स्त्री-पुरुष का संबंध पशुवत् न होकर केवल वंशवृद्धि के लिए होना चाहिए। मानसिक और शारीरिक रूप से स्वस्थ होने, मन प्रसन्न होने पर गर्भधारण करने से संतति स्वस्थ और बुद्धिमान होती है।
२. पुंसवन संस्कार : गर्भ धारण के तीन माह बाद गर्भ में जीव के संरक्षण और विकास के लिए यह आवश्यक है कि स्त्री अपने भोजन और जीवन शैली को नियम अनुसार करे। इस संस्कार का उद्देश्य स्वस्थ और उत्तम संतान की प्राप्ति है। यह तभी संभव है जब गर्भधारण विशेष तिथि और ग्रहों के आधार पर किया जाए।
३. सीमन्तोनयन संस्कार : सीमन्तोनयन संस्कार गर्भधारण करने के बाद छठे या आठवें मास में किया जाता है। इस मास में गर्भपात होने की सबसे अधिक संभावनाएं होती हैं या इन्हीं महीनों में प्री-मेच्योर डिलीवरी होने की सर्वाधिक सम्भावना होती है। गर्भवती स्त्री के स्वभाव में परिवर्तन लाने, स्त्री के उठने-बैठने, चलने, सोने आदि की विधि आती है। मेडीकल साईंस भी इन महीनों में स्त्री को विशेष सावधानी रखने की सलाह देता है। भ्रूण के विकास और स्वस्थ बालक के लिए यह आवश्यक है। गर्भस्थ शिशु और माता की रक्षा करना इस संस्कार का मुख्य उद्देश्य है। स्त्री का मन प्रसन्न करने के लिए यह संस्कार किया जाता है।
४. जातकर्म संस्कार : यह बालक के जन्म के बाद किया जाता है। इसमें बालक को शहद और घी चटाया जाता है। इससे बालक की बुद्धि का विकास तीव्र होता है। इसके बाद से माता बालक को स्तनपान कराना शुरू करती है। इस संस्कार की वैज्ञानिकता है कि बालक के लिए माता का दूध ही श्रेष्ठ भोजन है।
५. नामकरण संस्कार : इस संस्कार का बहुत अधिक महत्व है। जन्म नक्षत्र को ध्यान में रखते हुए शुभ नक्षत्र में बालक को नाम दिया जाता है। नाम वर्ण की शुभता का प्रभाव बालक पर सम्पूर्ण जीवन रहता है। यह बालक के व्यक्तित्व का विकास करता है।
६. निष्क्रमण संस्कार : इस संस्कार में बालक को सूर्य-चंद्र की ज्योति के दर्शन कराए जाते हैं। जन्म के चौथे मास में यह संस्कार किया जाता है। इस दिन से बालक को बाहरी वातावरण के संपर्क में लाया जाता है। शिशु को आस-पास के वातावरण से अवगत कराया जाता है।
७. अन्नप्राशन संस्कार : इस संस्कार के बाद से बालक को माता के दूध के अतिरिक्त अन्य खाद्य पदार्थ देने शुरू किए जाते हैं। चिकित्सा विज्ञान भी यही कहता है कि एक समय सीमा के बाद बालक का पोषण केवल दूध से नहीं हो सकता। उसे अन्य पदार्थों की भी जरूरत होती है। इस संस्कार का उद्देश्य खाद्य पदार्थों से बालक का शारीरिक और मानसिक विकास करना है। यही इसकी वैज्ञानिकता है।
८. चूड़ाकर्म संस्कार : इसे मुंडन संस्कार के नाम से भी जाना जाता है। इसके लिए शिशु के जन्म के बाद के पहले, तीसरे और पांचवें वर्ष का चयन किया जाता है। शारीरिक स्वच्छता और बौद्धिक विकास इस संस्कार का उद्देश्य है। माता के गर्भ में रहने के समय और जन्म के बाद दूषित कीटाणुओं से मुक्त करने के लिए यह संस्कार किया जाता है। स्वच्छता से शारीरिक, मानसिक और बौद्धिक विकास अधिक तीव्र गति से होता है। यह विज्ञान भी मानता है।
९. विद्यारम्भ संस्कार : विद्यारम्भ का अभिप्राय बालक को शिक्षा के प्रारम्भिक स्तर से परिचित कराना है। प्राचीन काल में जब गुरुकुल की परम्परा थी तो बालक को वेदाध्ययन के लिए भेजने से पहले घर में अक्षर बोध कराया जाता था। मां-बाप तथा गुरुजन पहले उसे मौखिक रूप से श्लोक, पौराणिक कथाओं आदि का अभ्यास करा दिया करते थे ताकि गुरुकुल में कठिनाई न हो। हमारा शास्त्र विद्यानुरागी है। विद्या अथवा ज्ञान ही मनुष्य की आत्मिक उन्नति का साधन है। शिक्षा विज्ञान की ओर प्रथम कदम है। यही यह संस्कार बताता है।
१०. कर्णवेध संस्कार : इस संस्कार का आधार बिल्कुल वैज्ञानिक है। बालक की शारीरिक व्याधि से रक्षा ही इसका मूल उद्देश्य है। प्रकृति प्रदत्त इस शरीर के सारे अंग महत्वपूर्ण हैं। कान हमारे श्रवण द्वार हैं। कर्ण वेधन से व्याधियां दूर होती हैं तथा श्रवण शक्ति भी बढ़ती है।
११. यज्ञोपवीत संस्कार : बच्चे की धार्मिक और आध्यात्मिक उन्नति के लिए यह संस्कार किया जाता है। इसमें जनेऊ धारण कराया जाता है। इस संस्कार का सम्बन्ध लघु या दीर्घ शंका के बाद स्वच्छता से है। इसे कान में लपेटने से एक्यूप्रैशर ङ्क्षबिंदु पर दबाव पड़ता है, जिससे लघु या दीर्घ शंका से बिना किसी कष्ट के निदान हो जाता है।
१२. विद्यारम्भ संस्कार : इस संस्कार के द्वारा यह यत्न किया गया है कि इस धर्म के हर व्यक्ति को अपने धर्म का वैज्ञानिक ज्ञान होना चाहिए। यह जीवन के चतुर्मुखी विकास के लिए बहुत उपयोगी हैं।
१३. केशांत संस्कार : इस संस्कार का उद्देश्य बालक को शिक्षा क्षेत्र से निकाल कर सामाजिक क्षेत्र से जोडऩा है। गृहस्थाश्रम में प्रवेश का यह प्रथम चरण है। बालक का आत्मविश्वास बढ़ाने, समाज और कर्म क्षेत्र की परेशानियों से अवगत कराने का कार्य यह संस्कार करता है।
१४. समावर्तन संस्कार : गुरुकुल से विदाई के पूर्व यह संस्कार किया जाता है। आज गुरुकूल परम्परा समाप्त हो गई है, इसलिए यह संस्कार अब नहीं किया जाता है। इस उपाधि से वह सगर्व गृहस्थाश्रम में प्रवेश करने का अधिकारी समझा जाता था।
१५. विवाह संस्कार : विवाह संस्कार अपने बाद अपनी पीढ़ी का अंश इस दुनिया को दिए जाने का मार्ग है। परिपक्व आयु में विवाह संस्कार प्राचीन काल से मान्य रहा है। समाजिक बन्धनों में बांधने और अपने कर्मों से न भागने देने के लिए बच्चों को विवाह संस्कार करके एक अदृश्य डोर में बांध दिया जाता है।
१६. अंत्येष्टि संस्कार : जब मनुष्य का शरीर इस संसार के कर्म करने योग्य नहीं रह जाता है, मन की उमंग भी समाप्त हो जाती है, तब इस शरीर का जीव उड़ जाता है। पंचतत्वों से बने इस नश्वर शरीर के दाह संस्कार का विधान है जिससे शरीर के वायरस और बैक्टीरिया समाप्त हो जाएं। क्योंकि जैसे ही इस शरीर का जीव निकलता है, शरीर पर वायरस और बैक्टीरिया का जबरदस्त हमला होता है। इस प्रकार यह भी एक वैज्ञानिक संस्कार है।
यद्यद्विभूतिमत्सत्त्वं श्रीमदूर्जितमेव वा ।
तत्तदेवावगच्छ त्वं मम तेजोंऽशसम्भवम् ।।
यही प्राबोध है, यही सुमरती है, यही ज्ञान है, यही विज्ञान है।
भज मन
ओ३म् शान्तिश् शान्तिश् शान्तिः