|| राजा प्रतापभानु की कथा ||
नृप सुनि श्राप बिकल अति त्रासा ।
भै बहोरि बर गिरा अकासा ॥४॥
बिप्रहु श्राप बिचारि न दीन्हा ।
नहिं अपराध भूप कछु कीन्हा ॥५॥
अर्थ – शाप सुनकर राजा भय के मारे अत्यन्त व्याकुल हो गया। फिर सुंदर आकाशवाणी हुई – हे ब्राह्मणों! तुमने विचार कर शाप नहीं दिया। राजा ने कुछ भी अपराध नहीं किया।
👉 राजा विप्र शाप से पहले ही डरा हुआ था, यथा – ‘एकहि डर डरपत मन मोरा । प्रभु महिदेव श्राप अति घोरा ॥’ और अब वह घोर शाप सुना तो अति त्रास हुआ। विप्रशाप अति घोर है। भयंकरता यह है कि एक तो परिवारसहित नाश हो, वह भी अल्पकाल में और फिर यह भी कि राक्षस-योनि मिले, उस पर भी पानी देनेवाला कोई नहीं रह जाय अर्थात् सद्गति हो सकने का भी उपाय न रहे। यह अति भयंकरपन है।
👉 ‘बर गिरा अकासा’ – पूर्व आकाशवाणी से राजा अधर्मी ठहराये गये, राजा को जन्मभर इसकी ग्लानि रहेगी, अतएव उसके संतोष के लिये और उसको लोक में निरपराध ठहराने के लिये देववाणी हुई, नहीं तो इस आकाशवाणी की कोई आवश्यकता नहीं थी। ‘बर’ (श्रेष्ठ) शब्द से स्पष्ट है कि पहलेवाली आकाशवाणी श्रेष्ठ नहीं थी। वह कालकेतु की थी, ब्रह्मवाणी नहीं थी। वहाँ ‘बर’ शब्द नहीं है। ‘बहोरि’ अर्थात् शाप से अत्यन्त व्याकुल होने पर । अथवा, एक आकाशवाणी पूर्व हुई। दूसरी बार फिर हुई अतः ‘बहोरि’ कहा।
[यदि पूर्व भी देववाणी मानें तो यहाँ ‘ बरवाणी’ का भाव यह होगा कि पहली से विप्रवृन्द ने राजा की भूल समझी और शाप दिया और इससे उनका संदेह मिटेगा और वे शान्त होंगे।]
👉 ‘बिप्रहु श्राप…’ – ब्राह्मणों ने कुछ विचार नहीं किया यह वक्ता पहले ही कह चुके हैं – ‘नहिं कछु कीन्ह बिचार ।’ वही बात आकाशवाणी भी कह रही है। इससे दर्शाया है कि बिना अपराध के राजा को शाप दिया। इससे भी सिद्ध है कि पहली आकाशवाणी कालकेतु की है। यदि वह ईश्वर की वाणी होती तो प्रथम ही यह बात कह देती कि राजा का इसमें दोष नहीं है। दो बार आकाशवाणी होने का प्रयोजन ही नहीं था। अपराध विचारकर शाप देना था। बिप्रहु’ का भाव कि राजा ने तो अनजान में अनुचित किया था, पर तुम विप्र हो तुम्हें ध्यानकर देख लेना था कि यह काम किसका था और किसने आकाशवाणी में दुष्टतापूर्वक भेद दर्शाया और किस हेतु से ?
👉 ‘नहिं अपराध भूप कछु कीन्हा’ – भाव यह है कि ऐसा शाप भारी अपराध में देना चाहिये था और राजा ने तो किंचित् भी अपराध नहीं किया। राजा की शुद्धता प्रकट करने के लिये ‘बर गिरा’ हुई, नहीं तो राजा के हृदय में बड़ा संताप रहता कि हमारा निर्दोषपन न ब्राह्मण ही जान पाये न परमेश्वर ही, हमें अपराधी बनाकर दण्ड दिया। इस वाणी से अब संतोष हुआ।
🙏 श्रीराम – जय राम – जय जय राम 🙏
परस्तस्मात्तु भावोऽन्योऽव्यक्तोऽव्यक्तात्सनातनः ।
यः स सर्वेषु भूतेषु नश्यत्सु न विनश्यति ॥
🙏श्री शनिदेव जी की जय हो🙏
🚩धर्मो रक्षति रक्षितः सुखस्य मूलं धर्मः 🚩
भज मन 🙏
ओ३म् शान्तिश् शान्तिश् शान्तिः