नौतपा
हमारे पूर्वजों का विज्ञान कितना उन्नत है इस बात को समझने के लिये ? आजकल सभी गर्मी की बात कर रहे है। इनदिनों के “नौतपा” का अर्थ कोई नहीं समझना चाहता।
चलो हम ही समझते एवं समझाते है।
नौतपा अगर न तपे तो क्या होता है?
दो मूसा, दो कातरा, दो तीड़ी, दो ताय।
दो की बादी जळ हरै, दो विश्वर दो वाय।।
अर्थ:- नौतपा के पहले दो दिन लू न चली तो चूहे बहुत हो जाएंगे।
अगले दो दिन न चली तो कातरा (फसल को नुकसान पहुंचाने वाला कीट) बहुत हो जाएंगे।
तीसरे दिन से दो दिन लू नही चली तो टिड्डियों के अंडे नष्ट नहीं होंगे।
चौथे दिन से दो दिन नहीं तपा तो बुखार लाने वाले जीवाणु नहीं मरेंगे।
इसके बाद दो दिन लू न चली तो विश्वर यानी सांप-बिच्छू नियंत्रण से बाहर हो जाएंगे।
आखिरी दो दिन भी नहीं चली तो आंधियां अधिक चलेंगी। फसलें चौपट कर देंगी।
इसलिए “लू” से भयभीत न होवें। नौतपा इस मानव जीवन के लिये बहुत बहुत आवश्यक है।
अब इसका आध्यात्मिक अर्थ समझते है।
दो मूसा, दो कातरा, दो तीड़ी, दो ताय।
दो की बादी जळ हरै, दो विश्वर दो वाय।
यह दोहा गहरे आध्यात्मिक और सांस्कृतिक महत्व का है। इसे समझने के लिए हमें इसके प्रतीकात्मक अर्थों को जानना होगा। इस दोहे में कई प्रतीकात्मक तत्वों का उपयोग किया गया है, जो भारतीय दर्शन और योग शास्त्र से संबंधित हैं।
दो मूसा
“मूसा” का अर्थ चूहा होता है। यहाँ “दो मूसा” से तात्पर्य हमारे जीवन में उपस्थित दो प्रमुख विकारों से है। ये विकार हैं – काम (इच्छा) और क्रोध (गुस्सा)। ये दोनों विकार हमारे मन को लगातार प्रभावित करते रहते हैं और हमारे मानसिक शांति को भंग करते हैं।
दो कातरा
“कातरा” का अर्थ है छुरी या चाकू। यहाँ “दो कातरा” का अर्थ है वह दो प्रकार की मानसिक धाराएँ जो हमारी चेतना को प्रभावित करती हैं। ये धाराएँ हैं – मोह (आसक्ति) और माया (भ्रम)। ये धाराएँ हमारे मन को भ्रमित करती हैं और हमें सत्य से दूर ले जाती हैं।
दो तीड़ी
“तीड़ी” का अर्थ है तीखी वस्तु, जो चुभन पैदा करती है। यहाँ “दो तीड़ी” से तात्पर्य है – अहंकार (अभिमान) और द्वेष (नफरत)। ये दोनों भावनाएँ हमारे मन में तीव्र चुभन पैदा करती हैं और हमारी आध्यात्मिक उन्नति में बाधा डालती हैं।
दो ताय
“ताय” का अर्थ होता है पीड़ा। “दो ताय” से तात्पर्य है – लोभ (लालच) और ईर्ष्या (जलन)। ये दोनों भावनाएँ हमारे जीवन में पीड़ा और दुख का कारण बनती हैं।
दो की बादी जळ हरै
यह पंक्ति बताती है कि जब हम इन दो-दो विकारों से मुक्त हो जाते हैं, तो हमारी आत्मा जल की तरह निर्मल हो जाती है। “जल हरै” का अर्थ है जल के समान शुद्ध हो जाना। इस स्थिति में हमारी आत्मा समस्त विकारों से मुक्त हो जाती है और हमें आंतरिक शांति प्राप्त होती है।
दो विश्वर दो वाय
इस अंतिम पंक्ति का अर्थ है कि जब हम इन विकारों से मुक्त हो जाते हैं, तो हम विश्व (दुनिया) और वायु (प्राण) के सही मायनों को समझने लगते हैं। “दो विश्वर” का अर्थ है संसार के दो सत्य – स्थूल (भौतिक) और सूक्ष्म (आध्यात्मिक) को जानना। “दो वाय” का अर्थ है – प्राणवायु और आत्मवायु, जिनसे जीवन संचालित होता है।
यह दोहा हमारे जीवन में उपस्थित विभिन्न विकारों और उनकी मुक्त होने की प्रक्रिया का प्रतीकात्मक वर्णन करता है। यह हमें सिखाता है कि कैसे हम अपनी इच्छाओं, क्रोध, मोह, माया, अहंकार, द्वेष, लोभ और ईर्ष्या से मुक्त होकर अपने जीवन को शुद्ध और शांत बना सकते हैं। इसके माध्यम से हम संसार के वास्तविक सत्य और प्राणवायु की महत्ता को समझ सकते हैं। यह दोहा हमें आत्मशुद्धि की ओर प्रेरित करता है और आध्यात्मिक उन्नति की दिशा में मार्गदर्शन करता है।
भज मन I