ऐतरेयोपनिषद् की कथा
ऐतरेयोपनिषद्, ऋग्वेद का एक प्रमुख उपनिषद् है जो ज्ञान, सृष्टि की उत्पत्ति, आत्मा और ब्रह्म के अद्वैत संबंध तथा मोक्ष के मार्ग पर गहन विवेचन करता है। यह उपनिषद् पाँच अध्यायों में विभाजित है, जिनमें विभिन्न श्लोकों के माध्यम से यह महत्वपूर्ण ज्ञान प्रदान किया गया है। आइए इस उपनिषद् की कथा को विस्तार से समझें।
सृष्टि की उत्पत्ति।
प्रारंभ में, केवल ब्रह्म था, जो निराकार और अव्यक्त था। इस अवस्था को समझने के लिए हमें पहले अध्याय के श्लोकों पर ध्यान देना होगा।
“आत्मा वा इदमेक एवाग्र आसीत्। नान्यत्किंचन मिषत्। स ईक्षत लोकान्नु सृजा इति।” इसका अर्थ है कि प्रारंभ में केवल आत्मा (ब्रह्म) ही था। उस समय कोई और वस्तु नहीं थी। आत्मा ने सोचा कि वह लोकों का निर्माण करेगा।
“स इमाँल्लोकानसृजत। अम्बः परमे व्योमन् दिवं पृथिवीं च अन्तरीक्षं च।” इसका अर्थ है कि ब्रह्म ने अम्ब (जल), व्योम (आकाश), दिव (स्वर्ग), पृथ्वी और अंतरिक्ष का निर्माण किया। इस प्रकार, ब्रह्म ने विभिन्न तत्वों और लोकों की सृष्टि की।
पंचभूतों और इंद्रियों की उत्पत्ति।
दूसरे अध्याय में, ब्रह्म ने पंचभूतों (जल, अग्नि, वायु, आकाश और पृथ्वी) और इंद्रियों का निर्माण किया।
“स इमाँल्लोकान्सृजित्वा। तान् अनु प्रविश्य। स तदन्नं तस्मात् पुरुषोऽन्नमश्नते।” इसका अर्थ है कि ब्रह्म ने इन लोकों का निर्माण किया और फिर उनमें प्रविष्ट हुआ। इसलिए, मनुष्य अन्न को खाते हैं।
“सोऽकामयत। बहु स्यां प्रजायेय इति। स तपस्तप्त्वा।” बताया गया है कि ब्रह्म ने सोचा, “मैं बहुत हो जाऊं, प्रजा उत्पन्न करूं।” इसके लिए उसने तपस्या की। तपस्या के माध्यम से, ब्रह्म ने और अधिक सृष्टि का विस्तार किया।
जीव और आत्मा का संबंध।
तीसरे अध्याय में जीव और आत्मा के संबंध पर प्रकाश डाला गया है। यह अध्याय हमें बताता है कि आत्मा ही जीवों में प्रवेश करके उन्हें जीवित करती है।
“सोऽकामयत। प्रजायेय इति। स तपस्तप्त्वा।” ब्रह्म ने सोचा, “मैं प्रजा उत्पन्न करूं।” इसके लिए उसने तपस्या की।
“स एतमेव पुरुषं प्राथमिक्षत। तस्मात्।” ब्रह्म ने पुरुष (जीव) का निर्माण किया और उसमें प्रवेश किया। इस प्रकार, आत्मा ने जीवों में प्रवेश किया और उन्हें जीवित किया।
ब्रह्म और आत्मा की अद्वैतता।
चौथे अध्याय में ब्रह्म और आत्मा की अद्वैतता पर विचार किया गया है। इसमें बताया गया है कि आत्मा ही ब्रह्म है और वह सर्वत्र विद्यमान है।
“अयमात्मा ब्रह्म। सर्वानुभूः। सर्वस्मिन्सर्वं प्रविष्टम्।” इसका अर्थ है कि यह आत्मा ही ब्रह्म है। वह सब कुछ अनुभव करता है और सब में प्रवेश किया हुआ है।
“एष प्राज्ञात्मा सर्वात्मा।” यह प्राज्ञात्मा (ज्ञानी आत्मा) ही सबकी आत्मा है। इस प्रकार, आत्मा और ब्रह्म की अद्वैतता को समझाया गया है।
आत्म-साक्षात्कार और मोक्ष।
पाँचवे अध्याय में आत्म-साक्षात्कार और मोक्ष का मार्ग बताया गया है। इसमें आत्मा की महिमा और उसके वास्तविक स्वरूप का वर्णन किया गया है।
“सोऽहमस्मि। अहं ब्रह्मास्मि।” इसका अर्थ है कि यह आत्मा ही मैं हूँ। मैं ही ब्रह्म हूँ।
“स योऽवैत्। स सर्वस्य वशी।” जो यह जानता है, वह सबका स्वामी हो जाता है। इस प्रकार, आत्म-साक्षात्कार की महिमा बताई गई है।
ऐतरेयोपनिषद्, आत्मा और ब्रह्म के ज्ञान, सृष्टि की उत्पत्ति और मोक्ष के मार्ग पर गहन प्रकाश डालता है। यह उपनिषद् वेदांत दर्शन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है और आत्म-साक्षात्कार की ओर प्रेरित करता है। यह हमें सिखाता है कि आत्मा ही ब्रह्म है और उसके साक्षात्कार से ही मोक्ष की प्राप्ति होती है। इस प्रकार, ऐतरेयोपनिषद् हमें उच्चतम ज्ञान और आत्म-साक्षात्कार की दिशा में मार्गदर्शन करता है।