Home Blog Pauranik Kathayen महाराज ययाति की कथा।
महाराज ययाति की कथा।

महाराज ययाति की कथा।


महाराज ययाति का विवाह शुक्राचार्य की पुत्री देवयानी से हुआ। उनके बड़े पुत्र का नाम यदु था। यदु की संतान यादव कहलाती है। यदु का वंश यदुवंश के नाम से भूमंडल में विख्यात है। इस महान कुल में अनेक यशस्वी और तेजस्वी राजा हुए। इसी पावन यदुवंश में परम ब्रह्म परमात्मा वासुदेव पुरुषोत्तम श्री कृष्ण रूप में अवतार लिए। उनकी लीला का गान करके सभी मनुष्य पापों से पवित्र हो जाते हैं और परमधाम प्राप्त करने के अधिकारी बन जाते हैं। परमधाम प्राप्त करने पर मनुष्य का इस लोक में पुनरागमन नहीं होता, जन्म नहीं होता और वह जन्म मरण चक्र से मुक्त जाता है। इसे भवसागर से तर जाना कहते हैं। विष्णु पुराण में कहा गया है कि सूर्य और चंद्रमा प्रतिदिन उदय और अस्त होते हैं और यह क्रम निरंतर चलता रहता है। किंतु द्वादश अक्षर मंत्र का चिंतन करने वाले- जप करने वाले मनुष्य आज तक परमधाम से लौटकर नहीं आए। ऐसी है – श्री कृष्ण भगवान की अनुपम और अद्भुत महिमा।महाराज ययाति विषय- भोगों का विशेष रुप से अपनी इच्छा अनुसार बहुत अधिक सेवन किए। अंत में वे विषय भोग को असार- सारहीन मानकर विरक्त हो गए और वृद्ध होने पर राज्य त्याग कर तपस्या के लिए वन में चले गए और वहीं उत्तम गति प्राप्त किए।
महाराज ययाति ने विषय भोग सेवन का दीर्घ अनुभव प्राप्त करके अपना मत इस प्रकार व्यक्त किया।

विषय भोगों के सेवन से काम भावना शांत नहीं होती, अपितु निरंतर बढ़ती जाती है। इस पृथ्वी पर जितने भी अन्न, पशु, स्त्री, स्वर्ण, रत्न और सुख सुविधा की वस्तुएं हैं, वे सब एक विषय भोगी कामी मनुष्य के लिए पर्याप्त नहीं हैं अर्थात् यदि कोई मनुष्य उन्हें प्राप्त कर ले तो भी वह संतुष्ट नहीं हो सकता। विषय भोग सेवन से काम निरंतर उसी प्रकार बढ़ता जाता है, जैसे अग्नि में घी डालने से अग्नि की ज्वाला और अधिक बढ़ जाती है। विषय भोगों को अधिकाधिक भोगने की बढ़ती हुई इच्छा को तृष्णा कहते हैं। यह तृष्णा सदा जवान बनी रहती है, कभी बूढ़ी नहीं होती- क्षीण नहीं होती। मनुष्य विषयों को भोगते भोगते बूढ़ा हो जाता है-जरा जर्जर हो जाता है , किंतु तृष्णा सदा नव युवती के समान जवान बनी रहती है। तृष्णा एक प्राणान्तक रोग है। यह मनुष्य का प्राण लेकर ही शांत होती है।

इसलिए जो मनुष्य इस लोक और परलोक में सुखी होना चाहता है, वह इस तृष्णा को त्याग दे। महाराज ययाति के इस अनुभव युक्त ज्ञान को ययाति का गीत अथवा गाथा कहते हैं।

कहने का आशय यह है कि हमारे सनातन धर्म में अनुभव का विशेष महत्व है। अनुभव द्वारा ही बहुत से नियम निश्चित किए गए हैं। ये नियम मनुष्य को अंधकूप में गिरने से बचाते हैं। इन नियमों का मनुष्य पालन करके उत्तम गति प्राप्त करता है, उसका पतन नहीं होता, उसका कल्याण होता है, उसका उत्थान होता है। श्री कृष्ण भगवान गीता में उपदेश देते हुए कहते हैं कि विषय भोग भोगने में सुखदायक लगते हैं, परंतु वे दुखदायक हैं। वे आदि अंत वाले हैं अर्थात् उत्पत्ति और विनाश शील धर्म वाले हैं। इसलिए बुद्धि मान पुरुष विषय भोगों में आसक्त नहीं होते और विषय भोगों में रमण करने की इच्छा त्याग कर परम ब्रह्म परमात्मा की शरण में जाकर भजन करते हैं और अक्षय परमानंद का नित्य निरंतर सेवन करके सदा संतुष्ट रहते हैं।

प्रशान्तमनसं ह्येनं योगिनं सुखमुत्तमम्‌ ।
उपैति शांतरजसं ब्रह्मभूतमकल्मषम्‌ ॥

भज मन
ओ३म् शान्तिश् शान्तिश् शान्तिः

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