शिशुपाल वध कथा।

शिशुपाल वध कथा।

वासुदेवजी की बहन रानी सुतासुभा और छेदी के राजा दमघोष के पुत्र का नाम शिशुपाल था। जब वह उत्पन्न हुआ, तब उसके चार हाथ और तीन नेत्र थे। इस विचित्र शिशु को देखकर सब लोग इसे राक्षस समझ कर इसको त्याग देने का मन बना लिए। तब आकाश वाणी हुई कि आप इसका पालन पोषण करें। यह बहुत बलवान होगा।
आकाश वाणी सुनकर शिशुपाल की माता ने कहा कि जिसने यह आकाशवाणी की है, उससे मैं हाथ जोड़कर प्रार्थना करती हूं कि वह यह बता दें कि इस बालक की मृत्यु किसके हाथों होगी। तब आकाशवाणी ने कहा कि जिसका स्पर्श होते ही- जिसके छूते ही इसकी एक आंख और तो हाथ लुप्त हो जाएंगे, उसी के हाथों से इसकी मृत्यु होगी। इस विचित्र शिशु को देखने के लिए सभी राजा लोग आने लगे। शिशुपाल की माता सब के गोद में शिशु को रखती थी। उसी समय बलरामजी और श्रीकृष्ण भगवान भी वहां गए।

जब श्री कृष्ण भगवान की गोद में इस विचित्र शिशु को रखा गया, तब उसके एक नेत्र और दो हाथ लुप्त हो गए। यह देखकर शिशुपाल की माता थर-थर कांपने लगी।उसने अत्यंत दीन भाव से श्री कृष्ण भगवान से कहा कि आप सबको अभय देने वाले हैं। अतः मैं आपसे यह प्रार्थना करती हूं कि आप शिशुपाल का कभी वध मत कीजिएगा। यदि यह कोई अपराध करे तो आप मेरी ओर देखकर इसे क्षमा कर दीजिएगा।

श्री कृष्ण भगवान ने अपनी बुआ से कहा कि यदि यह वध करने योग्य सौ अपराध करेगा, तो भी मैं इसे क्षमा कर दूंगा,आप चिंता न करें। श्री कृष्ण भगवान से ऐसा आश्वासन पाकर शिशुपाल की माता प्रसन्न हो गयी। यही कारण है कि शिशुपाल द्वारा अपराध करने पर भी श्री कृष्ण भगवान मौन रहते थे, कभी कार्यवाही नहीं करते थे। इस वजन का लाभ उठाकर शिशुपाल यादवों पर ही अत्याचार करने लगा। वह श्रीकृष्ण के विरोध में कार्य करता था। एक बार शिशुपाल ने तो तपस्वी बभ्रु की पत्नी का अपहरण कर लिया। एक बार श्री कृष्ण भगवान के पिताजी यज्ञ कर रहे थे, तो यह वहां उत्पात मचाया और यज्ञ में विघ्न डाला।

जरासंध का वध करने के पश्चात् श्रीकृष्ण, अर्जुन और भीम इन्द्रप्रस्थ लौट आये। वापस आकर उन्होंने धर्मराज युधिष्ठिर से सारा वृत्तांत कहा, जिसे सुनकर वे अत्यन्त प्रसन्न हुए। तत्पश्चात् धर्मराज युधिष्ठिर ने राजसूय यज्ञ की तैयारी शुरू करवा दी। उस यज्ञ के ऋतिज आचार्य होता थे।
ऋतिजों ने शास्त्र विधि से यज्ञ-भूमि को सोने के हल से जुतवाकर धर्मराज युधिष्ठिर को दीक्षा दी। धर्मराज युधिष्ठिर ने सोमलता का रस निकालने के समय यज्ञ की भूल-चूक देखने वाले सद्पतियों की विधिवत पूजा की। अब समस्त सभासदों में इस विषय पर विचार होने लगा कि सबसे पहले किस देवता की पूजा की जाए। तब सहदेव उठकर बोले-

“श्रीकृष्ण देवन के देव, उन्हीं को सब से आगे लेव।
ब्रह्मा शंकर पूजत जिनको, पहिली पूजा दीजै उनको।
अक्षर ब्रह्म कृष्ण यदुराई, वेदन में महिमा तिन गाई।
अग्र तिलक यदुपति को दीजै, सब मिलि पूजन उनको कीजै।”

परमज्ञानी सहदेव के वचन सुनकर सभी सत्पुरुषों ने साधु! साधु! कह कर पुकारा। भीष्म पितामह ने स्वयं अनुमोदन करते हुये सहदेव के कथन की प्रशंसा की। तब धर्मराज युधिष्ठिर ने शास्त्रोक्त विधि से भगवान श्रीकृष्ण का पूजन आरम्भ किया। चेदिराज शिशुपाल अपने आसन पर बैठा हुआ यह सब दृश्य देख रहा था। सहदेव के द्वारा प्रस्तावित तथा भीष्म के द्वारा समर्थित श्रीकृष्ण की अग्रपूजा को वह सहन न कर सका और उसका हृदय क्रोध से भर उठा। वह उठकर खड़ा हो गया और बोला- “हे सभासदों! मुझे ऐसा प्रतीत हो रहा है कि कालवश सभी की मति मारी गई है। क्या इस बालक सहदेव से अधिक बुद्धिमान व्यक्ति इस सभा में नहीं है, जो इस बालक की हाँ में हाँ मिलाकर अयोग्य व्यक्ति की पूजा स्वीकार कर ली गई है? क्या इस कृष्ण से आयु, बल तथा बुद्धि में कोई भी बड़ा नहीं है? बड़े-बड़े त्रिकालदर्शी ऋषि-महर्षि यहा पधारे हुये हैं। बड़े-बड़े राजा-महाराजा यहाँ पर उपस्थित हैं। क्या इस गाय चराने वाल ग्वाले के समान कोई और यहाँ नहीं है? क्या कौआ हविश्यान्न ले सकता है? क्या गीदड़ सिंह का भाग प्राप्त कर सकता है? न इसका कोई कुल है न जाति, न ही इसका कोई वर्ण है। राजा ययाति के शाप के कारण राजवंशियों ने इस यदुवंश को वैसे ही बहिष्कृत कर रखा है। यह जरासंध के डर से मथुरा त्यागकर समुद्र में जा छिपा था। भला यह किस प्रकार अग्रपूजा पाने का अधिकारी है?”

यज्ञ को सफल बनाने के लिये वहाँ पर भारतवर्ष के समस्त बड़े-बड़े ऋषि महर्षि- भगवान वेद व्यास, भारद्वाज, सुनत्तु, गौतम, असित, वशिष्ठ, च्यवन, कण्डव, मैत्रेय, कवष, जित, विश्वामित्र, वामदेव, सुमति, जैमिन, क्रतु, पैल, पराशर, गर्ग, वैशम्पायन, अथर्वा, कश्यप, धौम्य, परशुराम, शुक्राचार्य, आसुरि, वीतहोत्र, मधुद्वन्दा, वीरसेन, अकृतब्रण आदि उपस्थित थे। सभी देशों के राजाधिराज भी वहाँ पधारे।
इस प्रकार शिशुपाल जगत के स्वामी श्रीकृष्ण को गाली देने लगा। उसके इन कटु वचनों की निन्दा करते हुए अर्जुन और भीमसेन अनेक राजाओं के साथ उसे मारने के लिये उद्यत हो गये, किन्तु श्रीकृष्णचन्द्र ने उन सभी को रोक दिया। श्रीकृष्ण के अनेक भक्त सभा छोड़कर चले गये, क्योंकि वे श्रीकृष्ण की निन्दा नहीं सुन सकते थे।

जब शिशुपाल श्रीकृष्ण को एक सौ गाली दे चुका, तब श्रीकृष्ण ने गरज कर कहा- “बस शिशुपाल! अब मेरे विषय में तेरे मुख से एक भी अपशब्द निकला तो तेरे प्राण नहीं बचेंगे। मैंने तेरे एक सौ अपशब्दों को क्षमा करने की प्रतिज्ञा की थी, इसीलिए अब तक तेरे प्राण बचे रहे।” श्रीकृष्ण के इन वचनों को सुनकर सभा में उपस्थित शिशुपाल के सारे समर्थक भय से थर्रा गये, किन्तु शिशुपाल का विनाश समीप था। अतः उसने काल के वश होकर अपनी तलवार निकालते हुए श्रीकृष्ण को फिर से गाली दी। शिशुपाल के मुख से अपशब्द के निकलते ही श्रीकृष्ण ने अपना सुदर्शन चक्र चला दिया और पलक झपकते ही शिशुपाल का सिर कटकर गिर गया। उसके शरीर से एक ज्योति निकलकर भगवान श्रीकृष्णचन्द्र के भीतर समा गई और वह पापी शिशुपाल, जो तीन जन्मों से भगवान से बैर भाव रखता आ रहा था, परमगति को प्राप्त हो गया। यह भगवान विष्णु का वही द्वारपाल था, जिसे सनकादि मुनियों ने शाप दिया था। वे जय और विजय अपने पहले जन्म में हिरण्यकश्यपु और हिरण्याक्ष, दूसरे जन्म में रावण और कुम्भकर्ण तथा अंतिम तीसरे जन्म में कंस और शिशुपाल बने एवं श्रीकृष्ण के हाथों अपनी परमगति को प्राप्त होकर पुनः विष्णुलोक लौट गए।

श्री कृष्ण भगवान द्वारा उसके अपराध की उपेक्षा करने के कारण शिशुपाल का मन बहुत अधिक बढ़ गया और वह निर्भीक होकर श्री कृष्ण भगवान के विरुद्ध कार्य करने लगा। श्री कृष्ण भगवान अपने दिए हुए वचन के अनुसार चुपचाप गाली सुनते रहे और विरोध में कुछ न बोले। जब शिशुपाल १०० से अधिक गालियां दे चुका, तब श्री कृष्ण भगवान राज समाज में बोले कि यद्यपि यह मेरा संबंधी है, फिर भी यह हमसे द्वेष करता है और हमें हानि पहुंचाने में इसने कोई कोर कसर नहीं छोड़ी है। मैंने इसकी माता को इसके सौ अपराध क्षमा करने का वचन दिया था, जो अब पूरा हो गया है। आप सब लोग देख रहे हैं कि यह कैसे निर्भीक होकर मुझे गालियां दिए जा रहा है। अब आज मैं इसे क्षमा नहीं करूंगा। इतना कहकर श्री कृष्ण भगवान ने अपने सुदर्शन चक्र से सबके सामने ही उद्दण्ड शिशुपाल का सिर काट दिए।

कहने का आशय यह है कि यदि अपना संबंधी विरोधी हो तो वह सतत विरोध में ही कार्य करता है और न करने योग्य कार्य करने लगता है। ऐसा करते समय उसको संकोच भय और लज्जा नहीं आती। वह निर्भीक होकर कार्य करता है।

मूर्ख मित्र संबंधी की अपेक्षा ज्ञानवान शत्रु अच्छा माना जाता है। युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में देवर्षि महर्षि राजर्षि और अनेक राजा महाराजा उपस्थित थे। किसी ने श्री कृष्ण भगवान की अग्रपूजा का विरोध नहीं किया। श्री कृष्ण भगवान का संबंधी शिशुपाल आगे आकर सबके सामने उनका अपमान, निंदा और गाली देने लगा। इसलिए मनुष्य को सावधान रहना चाहिए कि कौन हमारा हित करने में लगा है और कौन हमारे विरोध में कार्य कर रहा है। इसलिए गुण दोष के आधार पर शत्रु और मित्र बनाना चाहिए और उन से सतर्क रहना चाहिए।

भज मन
ओ३म् शान्तिश् शान्तिश् शान्तिः

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